‘प्र’च्या कविता

Wednesday 20 April 2011

पानगळीची बाधा।

अंगातून अवचीत फुलते
ही पानगळीची बाधा।
डोहात सावळ्या बुडते
होऊन बावरी राधा।।
भयकंपीत मन का होते
का ओठी कुंठीत गाणे।
पावले थबकली का ती
चालताना कशास जाणे।।
निःशब्द नभास आता
साहेना मौन जराही।
भानावर येण्याआधी
व्याकूळ, शांत धराही।।
सांगणे असे काही ना
शब्दांत पकडता येई।
डोळ्यांत विराणी आहे
अर्थ हवा तू घेई।।

Tuesday 19 April 2011

हम हैं गम हैं

हम हैं गम हैं
एक जैसे जिंदगी के सब मौसम हैं।
ना दुख का मातम
ना खुशी से आँखे नम हैं।।
माथे पे खालीपन
बाहों में तनहाई हैं।
शब मायुसी की और
भटकाती दिन की रहनुमाई हैं।
ना अपनी खैर-खबर
ना औरों का पयाम हैं।
एक जैसे जिंदगी के सब मौसम हैं।।
ना हटनेवाली फुरसत हैं
ना मिटनेवाली शिकायत हैं।
धडकनों में घुला रंज और
होठों पे फकत लानत हैं।
वही टुटें ख्वाबों की दुनियाँ
अब तलक कायम हैं।
एक जैसे जिंदगी के सब मौसम हैं।।
ना चाहत पायी किसीसे
ना गमें-दिल मयस्सर हुआ।
एक उम्र कटी इंतजार में
और बेमकामी हर सफर हुआ।
हसरत थी खुशीयों की
और पाये रंजो-गम हैं।
एक जैसे जिंदगी के सब मौसम हैं।।

Monday 18 April 2011

काळीज जळते तेव्हा

काळीज जळते तेव्हा डोळ्यांत असतो पूर विझवणारे हात पण असतात आभाळ दुर. पडतात मनाला प्रश्न आता मुळीच नाही जाणवते जगताना पण सुटले, चुकले काही. एकांत भराला येतो स्मरणाचे माजे रान मी जातो जातो म्हणतो मज थांबवी कुणाची आन. वेदनांचा गढुळला डोह मी त्यांत भिजतो चिंब काठांवर बसूनी कोणी शोधी स्वतःचे प्रतिबींब. आसवांचा गुंफून गोफ घातला सखीच्या गळ्यात नाचली वीज भयमुक्त काजळी तिच्या डोळयांत. तूर्तास जगावे जरा होईलही कदाचित सवय वाकड्या वाटांवरतीच पावलांत जन्मते लय. हे नभ सावल्यांचे मी पांघरून स्तब्ध ह्या अजागळावरती का झाली उगा ती लुब्ध?